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प्र ऋ॒भुभ्यो॑ दू॒तमि॑व॒ वाच॑मिष्य उप॒स्तिरे॒ श्वैत॑रीं धे॒नुमी॑ळे। ये वात॑जूतास्त॒रणि॑भि॒रेवैः॒ परि॒ द्यां स॒द्यो अ॒पसो॑ बभू॒वुः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra ṛbhubhyo dūtam iva vācam iṣya upastire śvaitarīṁ dhenum īḻe | ye vātajūtās taraṇibhir evaiḥ pari dyāṁ sadyo apaso babhūvuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। ऋ॒भुऽभ्यः॑। दू॒तम्ऽइ॑व। वाच॑म्। इ॒ष्ये॒। उ॒प॒ऽस्तिरे। श्वैत॑रीम्। धे॒नुम्। ई॒ळे॒। ये। वात॑ऽजूताः। त॒रणि॑ऽभिः। एवैः॑। परि॑। द्याम्। स॒द्यः। अ॒प॑सः। ब॒भू॒वुः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:33» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले तेंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (वातजूताः) वायु से उड़ाये गये त्रसरेणु आदि पदार्थ (एवैः) प्राप्त वेग आदि गुणों और (तरणिभिः) उत्तम प्रकार तैरने आदि क्रियाओं से (सद्यः) शीघ्र (द्याम्) आकाश और (अपसः) कर्मों के प्रति (परिबभूवुः) परिभूत तिरस्कृत अर्थात् रूपान्तर को प्राप्त होते हैं, उनसे मैं (उपस्तिरे) विस्तार के अर्थ और (ऋभुभ्यः) बुद्धिमानों के लिये (दूतमिव) जैसे दूत दूतपन की इच्छा करे वैसे (श्वैतरीम्) अत्यन्त शुद्ध (धेनुम्) धारण करनेवाली (वाचम्) वाणी को (प्र, इष्ये) प्राप्त करता हूँ, उस वाणी से पदार्थ विज्ञान की (ईळे) स्तुति करता हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो पुरुष जैसे त्रसरेणु वायु से क्रिया को निरन्तर करते हैं, वैसे ही विद्वानों से विद्या को प्राप्त होकर पुरुषार्थ सदा करते हैं, वे सर्व विद्याओं से युक्त सुन्दर वाणी को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

ये वातजूताः पदार्था एवैस्तरणिभिः सद्यो द्यामपसः परिबभूवुस्तैरहमुपस्तिर ऋभुभ्यो दूतमिव श्वैतरीं धेनुं वाचं प्रेष्ये तथा पदार्थविज्ञानमीळे ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (ऋभुभ्यः) मेधाविभ्यः। ऋभुरिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (दूतमिव) यथा दूतो दौत्यमिच्छति (वाचम्) (इष्ये) प्राप्नोमि (उपस्तिरे) स्रस्तराय (श्वैतरीम्) अतिशयेन शुद्धाम् (धेनुम्) धारणाम् (ईळे) स्तौमि प्राप्नोमि (ये) (वातजूताः) वायुप्रेरितास्त्रसरेण्वादिपदार्थाः (तरणिभिः) सन्तरणैः (एवैः) प्राप्तैर्वेगादिगुणैः (परि) (द्याम्) आकाशम् (सद्यः) शीघ्रम् (अपसः) कर्माणि (बभूवुः) भवन्ति ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये पुरुषा यथा त्रसरेणवो वायुना क्रियां सततं कुर्वन्ति तथैव विद्वद्भ्यो विद्यां प्राप्य पुरुषार्थं सदा कुर्वन्ति ते सर्वविद्यायुक्तां शोभनां वाचं प्राप्नुवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान माता-पिता व माणसाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष जसे त्रसरेणू वायूद्वारे निरंतर क्रिया करतात तसे विद्वानांकडून विद्या प्राप्त करून नेहमी पुरुषार्थ करतात ते सर्व विद्यायुक्त सुंदर वाणीने सुशोभित होतात. ॥ १ ॥